इक शो'ला-ए-हसरत हूँ मिटा क्यूँ नहीं देते
मुझ को मिरे जीने कि सज़ा क्यूँ नहीं देते
मैं जिन के लिए रोज़ सलीबों पे चढ़ा हूँ
वो मेरी वफ़ाओं का सिला क्यूँ नहीं देते
क्यूँ दर्द की शिद्दत को बढ़ाते हो तबीबो
इस दर्द-ए-मुसलसल की दवा क्यूँ नहीं देते
सुनता हूँ कि हर मोड़ पे रहबर हैं मगर वो
मुझ को मेरी मंज़िल का पता क्यूँ नहीं देते
कुछ बात 'नफ़स' दिल में लिए बैठे हो कब से
आए हो यहाँ तक तो बता क्यूँ नहीं देते
ग़ज़ल
इक शो'ला-ए-हसरत हूँ मिटा क्यूँ नहीं देते
नफ़स अम्बालवी