इक शख़्स जज़ीरा राज़ों का और हम सब उस में रहते हैं
इक घर है तन्हा यादों का और हम सब उस में रहते हैं
इक मौसम हरे परिंदों का वो सर्द हवा का रिज़्क़ हुआ
इक गुलशन ख़ाली पेड़ों का और हम सब उस में रहते हैं
इक आँख है दरिया आँखों का हर मंज़र उस में डूब गया
इक चेहरा सहरा चेहरों का और हम सब उस में रहते हैं
इक ख़्वाब ख़ज़ाना नींदों का वो हम सब ने बर्बाद किया
इक नींद ख़राबा ख़्वाबों का और हम सब उस में रहते हैं
इक लम्हा लाख ज़मानों का वो मस्कन है वीरानों का
इक अहद बिखरते लम्हों का और हम सब उस में रहते हैं
इक रस्ता उस के शहरों का हम उस की धूल में धूल हुए
इक शहर उस की उम्मीदों का और हम सब उस में रहते हैं

ग़ज़ल
इक शख़्स जज़ीरा राज़ों का और हम सब उस में रहते हैं
मोहम्मद अजमल नियाज़ी