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इक शख़्स बा-ज़मीर मिरा यार 'मुसहफ़ी' | शाही शायरी
ek shaKHs ba-zamir mera yar mushafi

ग़ज़ल

इक शख़्स बा-ज़मीर मिरा यार 'मुसहफ़ी'

हबीब जालिब

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इक शख़्स बा-ज़मीर मिरा यार 'मुसहफ़ी'
मेरी तरह वफ़ा का परस्तार 'मुसहफ़ी'

रहता था कज-कुलाह अमीरों के दरमियाँ
यकसर लिए हुए मिरा किरदार 'मुसहफ़ी'

देते हैं दाद ग़ैर को कब अहल-ए-लखनऊ
कब दाद का था उन से तलबगार 'मुसहफ़ी'

ना-क़द्री-ए-जहाँ से कई बार आ के तंग
इक उम्र शे'र से रहा बेज़ार 'मुसहफ़ी'

दरबार में था बार कहाँ उस ग़रीब को
बरसों मिसाल-ए-'मीर' फिरा ख़्वार 'मुसहफ़ी'

मैं ने भी उस गली में गुज़ारी है रो के उम्र
मिलता है उस गली में किसे प्यार 'मुसहफ़ी'