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इक सदमा दर्द-ए-दिल से मिरी जान पर तो है | शाही शायरी
ek sadma dard-e-dil se meri jaan par to hai

ग़ज़ल

इक सदमा दर्द-ए-दिल से मिरी जान पर तो है

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

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इक सदमा दर्द-ए-दिल से मिरी जान पर तो है
लेकिन बला से यार के ज़ानू पे सर तो है

आना है उन का आना क़यामत का देखिए
कब आएँ लेकिन आने की उन के ख़बर तो है

है सर शहीद-ए-इश्क़ का ज़ेब-ए-सिनान-ए-यार
सद शुक्र बारे नख़्ल-ए-वफ़ा बारवर तो है

मानिंद-ए-शम्अ गिर्या है क्या शुग़्ल-ए-तुरफ़ा-तर
हो जाती रात उस में बला से बसर तो है

है दर्द दिल में गर नहीं हमदर्द मेरे पास
दिल-सोज़ कोई गर नहीं सोज़-ए-जिगर तो है

ऐ दिल हुजूम-ए-दर्द-ओ-अलम से न तंग हो
ख़ाना-ख़राब ख़ुश हो कि आबाद घर तो है

तुर्बत पे दिल-जलों की नहीं गर चराग़ ओ गुल
सीने में सोज़िश-ए-दिल ओ दाग़-ए-जिगर तो है

ग़ाएब में जो कहा सो कहा फिर भी है ये शुक्र
ख़ामोश हो गया वो मुझे देख कर तो है

कश्ती-ए-बहर-ए-ग़म है मिरे हक़ में तेग़-ए-यार
कर देती एक दम में इधर से उधर तो है

वो दिल कि जिस में सोज़-ए-मोहब्बत न होवे 'ज़ौक़'
बेहतर है संग उस से कि उस में शरर तो है