EN اردو
इक साँस की मद्धम लौ तो यही इक पल तो यही इक छिन तो यही | शाही शायरी
ek sans ki maddham lau to yahi ek pal to yahi ek chhin to yahi

ग़ज़ल

इक साँस की मद्धम लौ तो यही इक पल तो यही इक छिन तो यही

मजीद अमजद

;

इक साँस की मद्धम लौ तो यही इक पल तो यही इक छिन तो यही
तज दो कि बरत लो दिल तो यही चुन लो कि गँवा दो दिन तो यही

लर्ज़ां है लहू की ख़लीजों में पेचाँ है बदन की नसीजों में
इक बुझते हुए शोले का सफ़र कुछ दिन हो अगर कुछ दिन तो यही

बल खाए दिखे नज़रों से रिसे साँसों में बहे सोचों में जले
बुझते हुए इस शोले के जतन है कुछ भी अगर कुछ दिन तो यही

मैं ज़ेहन पे अपने गहरी शिकन मैं सिद्क़ में अपने भटका हुआ
इन बंधनों में इक अंगड़ाई मंज़िल है जो कोई कठिन तो यही

इस ढब से जिएँ सीनों के शरर झोंकों में घुलें क़द्रों में तुलें
काविश है कोई मुश्किल तो यही कोशिश है कोई मुमकिन तो यही

फिर बर्फ़ गिरी इक गुज़री हुई पत-झड़ की बहारें याद आईं
इस रुत की निचिंत हवाओं में हैं कुछ टीसें इतनी दुखन तो यही