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इक रोज़ ये सर-रिश्ता-ए-इदराक जला दूँ | शाही शायरी
ek roz ye sar-rishta-e-idrak jala dun

ग़ज़ल

इक रोज़ ये सर-रिश्ता-ए-इदराक जला दूँ

सय्यद काशिफ़ रज़ा

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इक रोज़ ये सर-रिश्ता-ए-इदराक जला दूँ
ऐ इश्क़ तिरी वहशत-ए-सफ़्फ़ाक जला दूँ

हो बस में जो मेरे तो तिरा नाम भी मिट जाए
मैं कर के तुझे ख़ाक तिरी ख़ाक जला दूँ

सीने में उलझती है रग-ए-दिल से रग-ए-दिल
ऐ इश्क़ हवा दे ख़स-ए-नमनाक जला दूँ

तासीर में कम हो तो करूँ शेर को भी आक़
आतिश में जो कम हो वो रग-ए-ताक जला दूँ

नज़्ज़ारा कोई यूँ भी न महरम हो कि 'काशिफ़'
आँखों को सर-ए-जल्वा-ए-बेबाक जला दूँ