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इक क़ाफ़िला है बिन तिरे हम-राह सफ़र में | शाही शायरी
ek qafila hai bin tere ham-rah safar mein

ग़ज़ल

इक क़ाफ़िला है बिन तिरे हम-राह सफ़र में

शाह नसीर

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इक क़ाफ़िला है बिन तिरे हम-राह सफ़र में
अश्क आँख में है दिल में है दाग़ आह जिगर में

आराम मुझे बिन तिरे इक पल नहीं घर में
जूँ मर्दुमक-ए-दीदा हूँ दिन रात सफ़र में

फिरता है वो गुल-पोश मिरे दीदा-ए-तर में
है शोला-ए-जव्वाला की तस्वीर भँवर में

सूराख़ यहाँ सूरत-ए-फ़व्वारा हैं सर में
दिखलाऊँ तमाशा जो मुझे छोड़ दे घर में

रश्क आए न क्यूँ मुझ को कि तू देख ज़र-ओ-सीम
रखता है क़दम पल्ला-ए-ख़ुर्शीद-ओ-क़मर में

मैं इन दुर-ए-शहवार के अश्कों से इधर आ
तौलूँगा बिठा कर तुझे हैरान नज़र में

आ देख न हँस हँस के रुला मुझ को सितमगर
इक नूह का तूफ़ाँ है मिरे दीदा-ए-तर में

अक्स-ए-लब-ए-पाँ-ख़ुर्दा से दंदाँ हैं तिरे सुर्ख़
या आतिश-ए-याक़ूत है ये आब-ए-गुहर में

बाज़ आओ शिकार-अफ़गनी से हाथ उठाओ
भाले को मियाँ किस लिए रखते हो कमर में

रहती है बहम ज़ुल्फ़ बना गोश से तेरे
कुछ फ़र्क़ नहीं है सर-ए-मू शाम-ओ-सहर में

है इस में रक़म हाल-ए-सियह-बख़्ती-ए-आशिक़
ये नामा कोई बाँध दो अब ज़ाग़ के पर में

ये भी कोई इंसाफ़ है ऐ ख़ाना-ख़राब आह
औरों को तो ले जाए है तू दिन दिए घर में

और हम जो हैं सो देखने को भी तिरे तरसें
दीवार में रख़्ना है न सूराख़ है दर में

किस वज्ह 'नसीर' उस लब-ए-शीरीं पे न हो ख़ाल
होता वतन-ए-मोर तो है तंग शकर में