इक नश्तर-ए-नज़र के तलबगार हम भी हैं
दाता हो तुम ग़मों के तो ग़म-ख़्वार हम भी हैं
हैराँ खड़े हुए उन्हीं राहों में हैं हनूज़
ऐ रहरवान-ए-कूचा-ए-दिल-दार हम भी हैं
दरिया समझ लिया जिसे निकला वही सराब
इक हर्फ़-ए-तिश्नगी के गुनहगार हम भी हैं
मुँह राह-ए-नज्द-ए-शौक़ से मोड़ा नहीं अभी
हाँ जुर्म-ए-ख़स्तगी के ख़तावार हम भी हैं
इस बाग़ में कि ज़ाग़-ओ-ज़ग़न हैं अमीन-ए-गुल
ख़ामोश देखने के सज़ा-वार हम भी हैं
ग़ज़ल
इक नश्तर-ए-नज़र के तलबगार हम भी हैं
साजिदा ज़ैदी