EN اردو
इक नश्तर-ए-नज़र के तलबगार हम भी हैं | शाही शायरी
ek nashtar-e-nazar ke talabgar hum bhi hain

ग़ज़ल

इक नश्तर-ए-नज़र के तलबगार हम भी हैं

साजिदा ज़ैदी

;

इक नश्तर-ए-नज़र के तलबगार हम भी हैं
दाता हो तुम ग़मों के तो ग़म-ख़्वार हम भी हैं

हैराँ खड़े हुए उन्हीं राहों में हैं हनूज़
ऐ रहरवान-ए-कूचा-ए-दिल-दार हम भी हैं

दरिया समझ लिया जिसे निकला वही सराब
इक हर्फ़-ए-तिश्नगी के गुनहगार हम भी हैं

मुँह राह-ए-नज्द-ए-शौक़ से मोड़ा नहीं अभी
हाँ जुर्म-ए-ख़स्तगी के ख़तावार हम भी हैं

इस बाग़ में कि ज़ाग़-ओ-ज़ग़न हैं अमीन-ए-गुल
ख़ामोश देखने के सज़ा-वार हम भी हैं