इक नई सुब्ह का आग़ाज़ है अंजाम के बा'द
फिर वही सिलसिला-ए-इश्क़ है इल्ज़ाम के बा'द
जाने क्या होगा मिरी सई-ए-तलब का हासिल
ज़ेहन में कुछ नहीं महफ़ूज़ तिरे नाम के बा'द
सेहन-ए-गुलशन में बहारों का निशाँ तक भी नहीं
ख़ाक उड़ती है फ़क़त गर्दिश-ए-अय्याम के बा'द
सुब्ह से कर्ब-ओ-अज़िय्यत का ये आलम तौबा
दर्द कुछ और सिवा होता है हर शाम के बा'द
उस से पहले तो हर इक अज़्म-ओ-अमल है बे-सूद
क़ल्ब-ए-मुज़्तर को सुकूँ मिलता है आलाम के बा'द
उस ने कुछ और ख़िताबात दिए हैं ख़त में
साथ वहशी भी लिखा है मुझे बदनाम के बा'द
मेरी जानिब भी ख़िज़र बज़्म-ए-अदू में इक दिन
उस की मख़्सूस नज़र थी निगह-ए-आम के बा'द

ग़ज़ल
इक नई सुब्ह का आग़ाज़ है अंजाम के बा'द
ख़िज़्र बर्नी