इक न इक शम् अँधेरे में जलाए रखिए
सुब्ह होने को है माहौल बनाए रखिए
दिल के हाथों से हमें ज़ख़्म-ए-निहाँ पहुँचे हैं
वो भी कहते हैं कि ज़ख़्मों को छुपाए रखिए
कौन जाने कि वो किस राहगुज़र पर गुज़रे
हर गुज़रगाह को फूलों से सजाए रखिए
दामन-ए-यार की ज़ीनत न बने हम अफ़्सोस
अपनी पलकों के लिए कुछ तो बचाए रखिए
ग़ज़ल
इक न इक शम् अँधेरे में जलाए रखिए
तारिक़ बदायुनी