इक हुनर था कमाल था क्या था
मुझ में तेरा जमाल था क्या था
तेरे जाने पे अब के कुछ न कहा
दिल में डर था मलाल था क्या था
बर्क़ ने मुझ को कर दिया रौशन
तेरा अक्स-ए-जलाल था क्या था
हम तक आया तू बहर-ए-लुत्फ़-ओ-करम
तेरा वक़्त-ए-ज़वाल था क्या था
जिस ने तह से मुझे उछाल दिया
डूबने का ख़याल था क्या था
जिस पे दिल सारे अहद भूल गया
भूलने का सवाल था क्या था
तितलियाँ थे हम और क़ज़ा के पास
सुर्ख़ फूलों का जाल था क्या था
ग़ज़ल
इक हुनर था कमाल था क्या था
परवीन शाकिर