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इक घड़ी वस्ल की बे-वस्ल हुई है मुझ में | शाही शायरी
ek ghaDi wasl ki be-wasl hui hai mujh mein

ग़ज़ल

इक घड़ी वस्ल की बे-वस्ल हुई है मुझ में

सलीम कौसर

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इक घड़ी वस्ल की बे-वस्ल हुई है मुझ में
किस के आने की ख़बर क़त्ल हुई है मुझ में

साँस लेने से भी भरता नहीं सीने का ख़ला
जाने क्या शय है जो बे-दख़्ल हुई है मुझ में

जल उठे हैं सर-ए-मिज़्गाँ तिरी ख़ुशबू के चराग़
अब के ख़्वाबों की अजब फ़स्ल हुई है मुझ में

मुझ से बाहर तो फ़क़त शोर है तन्हाई का
वर्ना ये जंग तो दर-अस्ल हुई है मुझ में

तू ने देखा नहीं इक शख़्स के जाने से 'सलीम'
इस भरे शहर की जो शक्ल हुई है मुझ में