इक घड़ी वस्ल की बे-वस्ल हुई है मुझ में
किस के आने की ख़बर क़त्ल हुई है मुझ में
साँस लेने से भी भरता नहीं सीने का ख़ला
जाने क्या शय है जो बे-दख़्ल हुई है मुझ में
जल उठे हैं सर-ए-मिज़्गाँ तिरी ख़ुशबू के चराग़
अब के ख़्वाबों की अजब फ़स्ल हुई है मुझ में
मुझ से बाहर तो फ़क़त शोर है तन्हाई का
वर्ना ये जंग तो दर-अस्ल हुई है मुझ में
तू ने देखा नहीं इक शख़्स के जाने से 'सलीम'
इस भरे शहर की जो शक्ल हुई है मुझ में
ग़ज़ल
इक घड़ी वस्ल की बे-वस्ल हुई है मुझ में
सलीम कौसर