इक धुआँ उठ रहा है आँगन से
हैं अभी कुछ चराग़ रौशन से
इस में शामिल है बू-ए-अफ़्लाकी
ये हवा आ रही है किस बन से
देने आया हूँ फ़त्ह का मुज़्दा
भाग आया नहीं हूँ मैं रन से
मंज़िलों की भी आरज़ू है बहुत
डर भी लगता है मुझ को रन-बन से
अब भी क्या रात के अंधेरे में
शोला उठता है गुलशन-ए-तन से
सुर्ख़-रू इश्क़ की बदौलत हूँ
कि मैं इस आग में हूँ बचपन से
ये ज़माना है चापलूसी का
हम तो वाक़िफ़ नहीं इसी फ़न से
मुझ से पहचान तेरी क़ाएम है
मैं तुम्हें चाहता हूँ तन-मन से
ग़ज़ल
इक धुआँ उठ रहा है आँगन से
रफ़ीक राज़