इक दामन-ए-रंगीं लहराया मस्ती सी फ़ज़ा में छा ही गई
जब सैर-ए-चमन को वो निकले फूलों की जबीं शर्मा ही गई
ये सेहन-ए-चमन ये बाग़-ए-जहाँ ख़ाली तो न था निकहत से मगर
कुछ दामन-ए-गुल से दूर था मैं कुछ बाद-ए-सबा कतरा ही गई
एहसास-ए-अलम और पास-ए-हया उस वक़्त का आँसू सहबा है
उस चश्म-ए-हसीं को क्या कहिए जब पी न सकी छलका ही गई
ख़ुद-बीं था मिज़ाज-ए-हुस्न मगर दामान-ए-मोहब्बत छू ही गया
अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल कुछ भी सही कुछ उन की नज़र फ़रमा ही गई
हर शोला-गर-ए-अहद-ए-ज़ुल्मत अंजाम से अपने डरता है
जब ज़िक्र-ए-सहर महफ़िल में छिड़ा कुछ शम्अ की लौ थर्रा ही गई
इस दौर में कितने शैख़-ए-हरम मय-ख़ाने का रस्ता पूछ गए
साक़ी की नज़र बेगाना सही कुछ कार-ए-जहाँ समझा ही गई
इक आह जो शोला-बार हुई आलम में शरारे फैल गए
इक मौज जो मुज़्तर हो के उठी दरिया का लहू गरमा ही गई
तहज़ीब के राना पैकर से ये बार-ए-अमानत उठ न सका
नाज़ूरा-ए-अहद-ए-हाज़िर की नाज़ुक थी कमर बल खा ही गई
ज़हराब-ए-ज़माना पी पी कर जो अहल-ए-जुनूँ थे राह लगे
शाएर को 'नुशूर' इक ज़ुल्फ़-ए-दोता ग़म दे न सकी उलझा ही गई
ग़ज़ल
इक दामन-ए-रंगीं लहराया मस्ती सी फ़ज़ा में छा ही गई
नुशूर वाहिदी