इक चराग़-ए-दिल फ़क़त रौशन अगर मेरा भी है
रहनुमा मेरा भी है फिर राहबर मेरा भी है
अब तलक हैरान हूँ मैं रात के उस ख़्वाब से
ख़ून की बरसात है घर तर-ब-तर मेरा भी है
शर्त हर मंज़ूर कर ली ज़िंदगी की मैं ने भी
दस्तख़त अब इस क़रार-ए-ज़ीस्त पर मेरा भी है
यूँ बहारों के लिए महव-ए-दुआ रहता हूँ मैं
फूल की मानिंद इक लख़्त-ए-जिगर मेरा भी है
हुस्न है तू तेरा भी चर्चा रहेगा दाइमी
इश्क़ हूँ मैं और अफ़्साना अमर मेरा भी है
पेड़ मिट्टी धूप पानी में अदावत हो गई
फूल लगते ही सभी बोले समर मेरा भी है
माह-ओ-अंजुम रख न रख उस में मिरे मालिक मगर
आसमाँ इक चाहिए मुझ को कि सर मेरा भी है
आलमों की बात का 'सौरभ' भरोसा है मुझे
तजरबा कुछ ज़िंदगी का हाँ मगर मेरा भी है
ग़ज़ल
इक चराग़-ए-दिल फ़क़त रौशन अगर मेरा भी है
सौरभ शेखर