इक चादर-ए-बोसीदा मैं दोश पे रखता हूँ
और दौलत-ए-दुनिया को पा-पोश पे रखता हूँ
आँखों को टिकाता हूँ हंगामा-ए-दुनिया पर
और कान सुख़न-हा-ए-ख़ामोश पे रखता हूँ
कैफ़िय्यत-ए-बे-ख़बरी क्या चीज़ है क्या जानूँ
बुनियाद ही होने की जब होश पे रखता हूँ
में कौन हूँ, अज़लों की हैरानियाँ क्या बोलें
इक क़र्ज़ हमेशा का मैं गोश पे रखता हूँ
जो क़र्ज़ की मय पी कर तस्ख़ीर-ए-सुख़न कर ले
ईमाँ उसी दिल्ली के मय-ए-नोश पे रखता हूँ
ग़ज़ल
इक चादर-ए-बोसीदा मैं दोश पे रखता हूँ
आफ़ताब इक़बाल शमीम