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इक अजनबी ख़याल में ख़ुद से जुदा रहा | शाही शायरी
ek ajnabi KHayal mein KHud se juda raha

ग़ज़ल

इक अजनबी ख़याल में ख़ुद से जुदा रहा

साग़र मेहदी

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इक अजनबी ख़याल में ख़ुद से जुदा रहा
नींद आ गई थी रात मगर जागता रहा

संगीन हादसों में भी हँसती रही हयात
पत्थर पे इक गुलाब हमेशा खिला रहा

दुनिया को उस निगाह ने दीवाना कर दिया
मैं वो सितम-ज़रीफ़ कि बस देखता रहा

इक अजनबी महक सी लहू में रची रही
नग़्मा सा जान-आे-तन में कोई गूँजता रहा

अब जा के ये खुला कि हर इक शख़्स दोस्तो
हर शख़्स को लिबास से पहचानता रहा

फ़िक्र-ए-सुख़न में रात जो आया ख़याल-ए-'मीर'
ता-देर डाइरी पे क़लम काँपता रहा

'साग़र' तमाम उम्र की गर्दिश के बावजूद
मैं उस निगाह-ए-नाज़ से ना-आश्ना रहा