इक आवारा सा लम्हा क्या क़फ़स में आ गया है
लगा जैसे ज़माना दस्तरस में आ गया है
ये किस कोंपल खुली साअत सदा दी है किसी ने
रुतों का रस हर इक तार नफ़स में आ गया है
हम उस कूचे से निस्बत की ख़ुशी कैसे सँभालें
हमारा नाम उस के ख़ार-ओ-ख़स में आ गया है
लहू में लौ कहाँ मौजूद ज़िंदा राब्ते की
निभाने को फ़क़त बे-रूह रस्में आ गया है
अना के फ़ैसले क्या मर्ज़ी-ए-पिंदार कैसी
मिरा होना न होना उस के बस में आ गया है
उतर आए उन आँखों में कुछ ऐसे अक्स 'आली'
कि दिल फिर से गिरफ़्त-ए-पेश-ओ-पस में आ गया है
ग़ज़ल
इक आवारा सा लम्हा क्या क़फ़स में आ गया है
जलील ’आली’