EN اردو
इक आलम-ए-हिज्राँ ही अब हम को पसंद आया | शाही शायरी
ek aalam-e-hijran hi ab hum ko pasand aaya

ग़ज़ल

इक आलम-ए-हिज्राँ ही अब हम को पसंद आया

मुनीर नियाज़ी

;

इक आलम-ए-हिज्राँ ही अब हम को पसंद आया
ये ख़ाना-ए-वीराँ ही अब हम को पसंद आया

बेनाम-ओ-निशाँ रहना ग़ुर्बत के इलाक़े में
ये शहर भी दिलकश था तब हम को पसंद आया

था लाल हुआ मंज़र सूरज के निकलने से
वो वक़्त था वो चेहरा जब हम को पसंद आया

है क़त्-ए-तअल्लुक़ से दिल ख़ुश भी बहुत अपना
इक हद ही बना लेना कब हम को पसंद आया

आना वो 'मुनीर' उस का बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर हम तक
ये तुर्फ़ा तमाशा भी शब हम को पसंद आया