ईसा की क़ुम से हुक्म नहीं कम फ़क़ीर का
अरिनी पुकारता है सदा दम फ़क़ीर का
ख़ूबी भरी है जिस में दो-आलम की कोट कोट
अल्लाह ने किया है वो आलम फ़क़ीर का
सब झूट है कि तुम को हमारा हो ग़म मियाँ
बाबा किसे ख़ुदा के सिवा ग़म फ़क़ीर का
हम क्यूँ न अपने-आप को रो लेवें जीते-जी
ऐ दोस्त कौन फिर करे मातम फ़क़ीर का
मर जावें हम तो पर न ख़बर हो ये तुम को आह
क्या जाने कब जहाँ से गया दम फ़क़ीर का
अब हम पे क्या गुज़रती है और क्या गुज़र गई
किस से कहें वो यार है महरम फ़क़ीर का
जब जीते-जी किसी ने न पूछा तो मेहरबाँ
फिर ब'अद-ए-मर्ग किस को रहा ग़म फ़क़ीर का
हो क्यूँ न उस को फ़क़्र की बातों में दस्त-गाह
है बालका 'नज़ीर' पुरातम फ़क़ीर का
ग़ज़ल
ईसा की क़ुम से हुक्म नहीं कम फ़क़ीर का
नज़ीर अकबराबादी