इफ़्शा हुए असरार-ए-जुनूँ जामा-दरी से
छापे गए अख़बार मिरी बे-ख़बरी से
दम नाक में आया है अब इस नौहागरी से
दिल पक गया ऐ आह तिरी बे-असरी से
क्या दिन हैं जो गुल खिलते हैं शो'ले हैं दहकते
लू चलती है बाग़ों में नसीम-ए-सहरी से
सोने के निवालों से न कर परवरिश-ए-रूह
इतनी भी मोहब्बत नहीं करते सफ़री से
कब अहल-ए-दुवल से हुई मा'बूद-परस्ती
बातिल है अगर सज्दा करें ताज-ए-ज़री से
हर हाल में रहती है ख़ुदा पर नज़र अपनी
ये मर्तबा हासिल है हमें बे-हुनरी से
मग़रूर न हो चाँद से रुख़्सार पर अपने
ये क़ुमक़ुमा रौशन है चराग़-ए-सहरी से
तू वो है शह-ए-हुस्न अगर बाज तलब हो
ले हूर से गुलदस्ता तबक़ शाह-ए-परी से
मुँह चढ़ते हैं बद-अस्ल तमीज़ उन को नहीं है
दाँतों से लड़ी सिल्क-ए-गुहर बद-गुहरी से
आँखों से निकलवाइए आँखें हिरनों की
चीतों की कमर तोड़िए नाज़ुक-कमरी से
नौबत तो कहीं क़त्ल-ए-गुनाहगार की आई
नक़्क़ारे बजाउँगा में तीरों की सरी से
पुश्त-ए-लब-ए-शफ़्फ़ाफ़ से जोबन है मिसों का
सब्ज़े ने नुमू की है अक़ीक़-ए-शजरी से
पीरी में भी हम से न हुई ख़ाना-नशीनी
बाज़ आए न बज़्मों से न गुज़रे गुज़री से
क़द तीर सा तलवार तवाज़ो' से हुआ है
वो हाथ उठाते नहीं बे-दाद-गरी से
जब चाहो चले आओ ये वा'दा नहीं अच्छा
दिल आँख चुराता है बहुत मुंतज़री से
अब ज़ोफ़-ए-जुनूँ कूचा-ए-जानाँ में बहा दे
कब तक ये वरम पाँव पर आशुफ़्ता-सरी से
वो चोट कलेजे में लगी है कि न पूछो
तड़पूँगा तह-ए-ख़ाक भी दर्द-ए-जिगरी से
रोने का न ले नाम ग़म-ए-यार में ऐ 'बहर'
उल्टे न ज़माने का वरक़ लब की तरी से
ग़ज़ल
इफ़्शा हुए असरार-ए-जुनूँ जामा-दरी से
इमदाद अली बहर