इधर से देखें तो अपना मकान लगता है
इक और ज़ाविए से आसमान लगता है
जो तुम हो पास तो कहता है मुझ को चीर के फेंक
वो दिल जो वक़्त-ए-दुआ बे-ज़बान लगता है
शुरू-ए-इश्क़ में सब ज़ुल्फ़ ओ ख़त से डरते हैं
अख़ीर उम्र में इन ही में ध्यान लगता है
सरकने लगती है तब ही क़दम तले से ज़मीन
जब अपने हाथ में सारा जहान लगता है
दो चार घाटियाँ इक दश्त कुछ नदी नाले
बस इस के ब'अद हमारा मकान लगता है
ग़ज़ल
इधर से देखें तो अपना मकान लगता है
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी