EN اردو
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी | शाही शायरी
hun parsa tere pahlu mein shab guzar ke bhi

ग़ज़ल

हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी

सलीम सिद्दीक़ी

;

हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
मैं बे-लिबास नहीं पैरहन उतार के भी

हर एक सर को बुलंदी अता नहीं करते
उसूल होते हैं कुछ तो सलीब-ओ-दार के भी

हमारे अक्स भी धुंधले हुए तो हम समझे
कि आईनों से हैं रिश्ते यहाँ ग़ुबार के भी

न आबलों से है रग़बत न पाँव से रंजिश
अजब सुलूक हैं मैदान-ए-ख़ारज़ार के भी

वो बे-यक़ीन भरोसा न कर सका वर्ना
थे मेरे साथ कई लोग ए'तिबार के भी

फ़क़त तुम्हीं को नहीं अपनी सादगी पे ग़ुरूर
दिमाग़ अर्श पे रहते हैं ख़ाकसार के भी

मैं जिस के पाँव की आहट का मुंतज़िर था 'सलीम'
वो जा चुका मुझे दहलीज़ से पुकार के भी