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हुसूल-ए-मंज़िल-ए-जाँ का हुनर नहीं आया | शाही शायरी
husul-e-manzil-e-jaan ka hunar nahin aaya

ग़ज़ल

हुसूल-ए-मंज़िल-ए-जाँ का हुनर नहीं आया

बख़्श लाइलपूरी

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हुसूल-ए-मंज़िल-ए-जाँ का हुनर नहीं आया
वो रौशनी थी कि कुछ भी नज़र नहीं आया

भटक रहे हैं अभी ज़ीस्त के सराबों में
मुसाफ़िरों को शुऊर-ए-सफ़र नहीं आया

तमाम रात सितारा-शनास रोते रहे
नज़र गँवा दी सितारा नज़र नहीं आया

हज़ार मिन्नतें कीं वास्ते ख़ुदा के दिए
ये राह-ए-रास्त पे वो राहबर नहीं आया

ज़बान-ए-शेर पे मोहर-ए-सुकूत है अब तक
जलाल-ए-सौत-ओ-सुख़न रंग पर नहीं आया

वो तक रहे हैं अज़ल से फ़राज़-ए-गर्दूं पर
नज़र किसी को भी नज्म-ए-सहर नहीं आया

हमारे शहर के हर संग-बार से ये कहो
हमारी शाख़-ए-शजर पर समर नहीं आया

हर एक मोड़ पे हम ने बहुत सदाएँ दीं
सफ़र तमाम हुआ हम-सफ़र नहीं आया

दयार-ए-ग़ैर से मेरा वो सर-फिरा बेटा
गया है घर से तो फिर लौट कर नहीं आया