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हुस्न की लाई हुई एक भी आफ़त न गई | शाही शायरी
husn ki lai hui ek bhi aafat na gai

ग़ज़ल

हुस्न की लाई हुई एक भी आफ़त न गई

जलील मानिकपूरी

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हुस्न की लाई हुई एक भी आफ़त न गई
दिल की धड़कन न गई दर्द की शिद्दत न गई

साया तक भाग गया देख के वहशत घर की
क्या बला है कि इलाही शब-ए-फ़ुर्क़त न गई

हुस्न-ए-दिलकश इसे कहते हैं कि हम सारी उम्र
उन को देखा किए दीदार की हसरत न गई

अब भी इस राहगुज़र में है जहाँ थी पहले
सच तो ये है न कहीं आई क़यामत न गई

मैं ज़माने में हूँ आईना-ए-तस्वीर 'जलील'
कि तसव्वुर से कभी यार की सूरत न गई