हुस्न की लाई हुई एक भी आफ़त न गई
दिल की धड़कन न गई दर्द की शिद्दत न गई
साया तक भाग गया देख के वहशत घर की
क्या बला है कि इलाही शब-ए-फ़ुर्क़त न गई
हुस्न-ए-दिलकश इसे कहते हैं कि हम सारी उम्र
उन को देखा किए दीदार की हसरत न गई
अब भी इस राहगुज़र में है जहाँ थी पहले
सच तो ये है न कहीं आई क़यामत न गई
मैं ज़माने में हूँ आईना-ए-तस्वीर 'जलील'
कि तसव्वुर से कभी यार की सूरत न गई
ग़ज़ल
हुस्न की लाई हुई एक भी आफ़त न गई
जलील मानिकपूरी