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हुस्न की दिल में मिरे जल्वागरी रहती है | शाही शायरी
husn ki dil mein mere jalwagari rahti hai

ग़ज़ल

हुस्न की दिल में मिरे जल्वागरी रहती है

मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही

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हुस्न की दिल में मिरे जल्वागरी रहती है
बंद इस शीशा-ए-नाज़ुक में परी रहती है

दिल वहाँ खुलता है जिस जा कि रहे जाम-ए-शराब
दाना वाँ उगता है जिस जा कि तरी रहती है

तिफ़्ली-ओ-अहद-ए-जवानी का न पूछो अहवाल
बे-ख़ुदी आगे थी अब बे-ख़बरी रहती है

बाग़-ए-आलम में नहीं दस्त-ए-करम को है ज़वाल
शाख़ ये वो है जो ता-हश्र हरी रहती है

याद में जाम-ओ-सुराही के तिरे ऐ साक़ी
दिल भरा रहता है आँखों में तरी रहती है

मय-ओ-माशूक़ से दौलत से बहार-ए-गुल में
चक्खियाँ रहती है हैं यारों की चरी रहती है

हर घड़ी रहता है ख़ाल-ए-रूख़-ए-महबूब का ध्यान
आज-कल सामने कोतह-नज़री रहती है

भीड़ सी भीड़ लगी रहती है कूचे में तिरे
जिंस उल्फ़त की मगर वहाँ पे खरी रहती है

नक़्द-ए-दिल लेते हो हर एक का बे-बोस-ओ-कनार
आप के ध्यान में क्या मुफ़्त-बरी रहती है

हाथ पकड़ा है मिरा दस्त-ए-जुनूँ ने जब से
हर घड़ी मद्द-ए-नज़र जामा-दरी रहती है

बाल खोले नहीं फिरता है अगर वो सफ़्फ़ाक
फिर कहो क्यूँ मुझे आशुफ़्ता-सरी रहती है

रिंद वाँ बसते हैं जिस जा हो ख़ुम-ओ-ख़ुम-ख़ाना
शेर वाँ रहते हैं जिस जा कि तरी रहती है