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हुस्न ऐ जान नहीं रहने का | शाही शायरी
husn ai jaan nahin rahne ka

ग़ज़ल

हुस्न ऐ जान नहीं रहने का

जुरअत क़लंदर बख़्श

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हुस्न ऐ जान नहीं रहने का
फिर ये एहसान नहीं रहने का

नज़्र की जेब तो ऐ जोश-ए-जुनूँ
अब ये दामान नहीं रहने का

पर्दा मत मुँह से उठाना यकबार
मुझ में औसान नहीं रहने का

तू चला और ये जी इस तन में
किसी उनवान नहीं रहने का

गुल को क्या रोती है तू ऐ बुलबुल
ये गुलिस्तान नहीं रहने का

दम का मेहमाँ हूँ मैं अब भी तू
आ के मेहमान नहीं रहने का

नबड़ी मय और गुलिस्तान में गुल
तेरे क़ुर्बान नहीं रहने का

अब भी आना है तो आ वर्ना म्याँ
ये भी सामान नहीं रहने का

दिल की दरख़्वास्त जो की तू ने तो याँ
अब ये इक आन नहीं रहने का

ऐसे में अपनी अमानत ले जा
फिर तुझे ध्यान नहीं रहने का

हिज्र के ग़म से न घबरा 'जुरअत'
इतना हैरान नहीं रहने का