हुई शक्ल अपनी ये हम-नशीं जो सनम को हम से हिजाब है
कभी अश्क है कभी आह है कभी रंज है कभी ताब है
ज़रा दर पे उस के पहुँच के हम जो बुलावें उस को तो दोस्तो
कभी ग़ुस्सा है कभी छेड़ है कभी हीला है कभी ख़्वाब है
जो उस अंजुमन में हैं बैठते तो मिज़ाज उस के से हम को वाँ
कभी इज्ज़ है कभी बीम है कभी रोब है कभी दाब है
वाह उधर से जा के जो आता है उसे दोनों हाल से दिल में याँ
कभी सोच है कभी फ़िक्र है कभी ग़ौर है कभी ताब है
जो वो ब'अद बोसा के नाज़ से ज़रा झिड़के है तो 'नज़ीर' को
कभी मिस्री है कभी क़ंद है कभी शहद है कभी राब है
ग़ज़ल
हुई शक्ल अपनी ये हम-नशीं जो सनम को हम से हिजाब है
नज़ीर अकबराबादी