हुई है हम में और इस गुल में क्या क्या मार फूलों की
गले तक उठ गई गुलज़ार में दीवार फूलों की
बहार आई है गुलशन ने क़बा-ए-सब्ज़ बदली है
जवानान-ए-चमन के सर पे है दस्तार फूलों की
चमन में आज-कल उस ज़ोर से पानी बरसता है
हुई है बुलबुलों पर हर तरफ़ बौछार फूलों की
बिके हैं कौड़ियों के मोल दा'वा कर के उस गुल से
गई है आबरू क्या क्या सर-ए-बाज़ार फूलों की
रसाई 'क़द्र' की क्यूँ कर न हो इस बज़्म-ए-रंगीं में
चमन में रखते हैं सोहबत हमेशा ख़ार फूलों की
ग़ज़ल
हुई है हम में और इस गुल में क्या क्या मार फूलों की
क़द्र बिलगरामी