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हुए कारवाँ से जुदा जो हम रह-ए-आशिक़ी में फ़ना हुए | शाही शायरी
hue karwan se juda jo hum rah-e-ashiqi mein fana hue

ग़ज़ल

हुए कारवाँ से जुदा जो हम रह-ए-आशिक़ी में फ़ना हुए

क़द्र बिलगरामी

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हुए कारवाँ से जुदा जो हम रह-ए-आशिक़ी में फ़ना हुए
जो गिरे तो नक़्श-ए-क़दम बने जो उठे तो बाँग-ए-दरा हुए

जो हवा से ज़ुल्फ़ बिखर गई नज़र उन की साफ़ बदल गई
जो असीर-ए-हल्क़ा-ए-नाज़ थे वो क़तील-ए-तेग़-ए-अदा हुए

हुआ बा'द-ए-वस्ल अजब मज़ा कि ख़मोश बैठे जुदा जुदा
हमा-तन मैं सब्र-ओ-सुकूँ हुआ हमा-तन वो शर्म-ओ-हया हुए

उठे हम जो ख़्वाब-ओ-ख़याल है लगे तकने दीदा-ए-हाल से
कि वो कब उठे वो किधर गए अभी पास थे अभी क्या हुए

जो निगह है चश्म-ए-सियाह में वही बर्क़-ए-तूर है राह में
तिरी आँख पर जो फ़िदा हुए वो शहीद-ए-राह-ए-ख़ुदा हुए

बने 'क़द्र' ऐसे ग़ुबार हम हुए गर्दिशों में वो ख़ार हम
कि मिसाल-ए-दायरा-ए-फ़लक जो उठे तो बे-सर-ओ-पा हुए