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हुए कारवाँ से जुदा जो हम रह-ए-आशिक़ी में फ़ना हुए | शाही शायरी
hue karwan se juda jo hum rah-e-ashiqi mein fana hue

ग़ज़ल

हुए कारवाँ से जुदा जो हम रह-ए-आशिक़ी में फ़ना हुए

क़द्र बिलगरामी

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हुए कारवाँ से जुदा जो हम रह-ए-आशिक़ी में फ़ना हुए
जो गिरे तो नक़्श-ए-क़दम बने जो उठे तो बाँग-ए-दरा हुए

कभी दाग़ खाते ही आह की कहीं आह करते ही रो दिए
कभी हम चमन की हवा हुए कभी हम हवा की घटा हुए

जो हवा-ए-दर्द बिखर गई नज़र उन की साफ़ बदल गई
जो असीर-ए-हल्क़ा-ए-नाज़ थे वो क़तील-ए-तेग़-ए-अदा हुए

हमा-तन कभी हुए दर्द-ओ-ग़म हमा-तन कभी हुए सब्र हम
कभी आप अपना मरज़ हुए कभी आप अपनी दवा हुए

हुआ बा'द-ए-वस्ल अजब मज़ा कि ख़मोश बैठे जुदा जुदा
हमा-तन मैं सब्र-ओ-सुकूँ हुआ हमा-तन-ओ-शर्म-ओ-हया हुए

उठे हम जो ख़्वाब-ओ-ख़याल से लगे तकने दीदा-ए-जाल से
कि वो कब उठे वो किधर गए अभी पास थे अभी क्या हुए

ये क़दम क़दम पे जमेंगे पाँव कि बढ़ सकोगे न आगे तुम
हो तुम्हारे कूचे की ख़ाक में कहीं दफ़्न अहल-ए-वफ़ा हुए