हुआ दे कर दबे शो'लों को भड़काया नहीं जाता
दिखा कर जाम मय प्यासों को तरसाया नहीं जाता
न ले जा दूर गुलशन से अरे सय्याद बुलबुल को
कि बीमार-ए-मोहब्बत पर सितम ढाया नहीं जाता
तिरी तर-दामनी को देख कर कुछ शक सा होता है
कि धब्बा दामन-ए-मा'सूम पर पाया नहीं जाता
हैं दोनों नूर के टुकड़े मगर हिफ़्ज़-ए-मरातिब से
सितारों को शह-ए-ख़ावर से टकराया नहीं जाता
बहारो है बुरी ये बात हम से आशिक़-ए-गुल को
दिखा के रू-ए-गुल काँटों में उलझाया नहीं जाता
न कर नश्तर-ज़नी सय्याद सादा-लौह बुलबुल पर
न जाने जो तड़पना उस को तड़पाया नहीं जाता
'ज़हीर'-ए-ख़स्ता ये भी इक उसूल पास-ए-उल्फ़त है
ज़बाँ पर कलमा-ए-शिकवा कभी लाया नहीं जाता
ग़ज़ल
हुआ दे कर दबे शो'लों को भड़काया नहीं जाता
सय्यद जहीरुद्दीन ज़हीर