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होती नहीं रसाई-ए-बर्क़-ए-तपाँ कहाँ | शाही शायरी
hoti nahin rasai-e-barq-e-tapan kahan

ग़ज़ल

होती नहीं रसाई-ए-बर्क़-ए-तपाँ कहाँ

ब्रहमा नन्द जलीस

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होती नहीं रसाई-ए-बर्क़-ए-तपाँ कहाँ
ऐ हम-नशीं बनाइए अब आशियाँ कहाँ

ठहरे मिसाल तेरी गुल-ए-अर्ग़वाँ कहाँ
ऐ मह-जबीं ज़मीन कहाँ आसमाँ कहाँ

छाना किया मैं ख़ाक-ए-दो-आलम तमाम उम्र
अपनी तलाश ले गई मुझ को कहाँ कहाँ

छुटता हुजूम-ए-ग़म से मिरा साथ किस तरह
जाता बिछड़ के मुझ से मिरा कारवाँ कहाँ

महदूद जिन की दैर-ओ-हरम तक थी जुस्तुजू
होता नसीब उन को तिरा आस्ताँ कहाँ

हर मंज़िल-ए-हयात की हद पार हो चुकी
ले जाएगी अब और ऐ उम्र-ए-रवाँ कहाँ

सय्याद ने भी मुझ को रहा कर दिया 'जलीस'
क़िस्मत में अब क़फ़स भी नहीं आशियाँ कहाँ