होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी 
बरहम हुई है यूँ भी तबीअत कभी कभी 
ऐ दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब 
मिलती है ज़िंदगी में ये राहत कभी कभी 
तेरे करम से ऐ अलम-ए-हुस्न-आफ़रीं 
दिल बन गया है दोस्त की ख़ल्वत कभी कभी 
जोश-ए-जुनूँ में दर्द की तुग़्यानियों के साथ 
अश्कों में ढल गई तिरी सूरत कभी कभी 
तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमइन न था 
गुज़री है मुझ पे ये भी क़यामत कभी कभी 
कुछ अपना होश था न तुम्हारा ख़याल था 
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फ़ुर्क़त कभी कभी 
ऐ दोस्त हम ने तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद 
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी कभी
        ग़ज़ल
होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी
नासिर काज़मी

