होती है गरचे कहने से यारो पराई बात
पर हम से तो थंबे न कभू मुँह पर आई बात
जाने न तुझ को जो ये तसन्नो तू उस से कर
तिस पर भी तो छुपी नहीं रहती बनाई बात
लग कर तदरौ रह गए दीवार-ए-बाग़ से
रफ़्तार की जो तेरी सबा ने चलाई बात
कहते थे उस से मिलिए तो क्या क्या न कहिए लेक
वो आ गया तो सामने उस के न आई बात
अब तो हुए हैं हम भी तिरे ढब से आश्ना
वाँ तू ने कुछ कहा कि इधर हम ने पाई बात
बुलबुल के बोलने में सब अंदाज़ हैं मिरे
पोशीदा कब रहे है किसू की उड़ाई बात
भड़का था रात देख के वो शो'ला-ख़ू मुझे
कुछ रू-सियह रक़ीब ने शायद लगाई बात
आलम सियाह-ख़ाना है किस का कि रोज़-ओ-शब
ये शोर है कि देती नहीं कुछ सुनाई बात
इक दिन कहा था ये कि ख़मोशी में है वक़ार
सो मुझ से ही सुख़न नहीं मैं जो बताई बात
अब मुझ ज़ईफ़-ओ-ज़ार को मत कुछ कहा करो
जाती नहीं है मुझ से किसू की उठाई बात
ख़त लिखते लिखते 'मीर' ने दफ़्तर किए रवाँ
इफ़रात-ए-इश्तियाक़ ने आख़िर बढ़ाई बात
ग़ज़ल
होती है गरचे कहने से यारो पराई बात
मीर तक़ी मीर