होते ख़ुदा के उस बुत-ए-काफ़िर की चाह की
इतनी तो बात मुझ से हुई है गुनाह की
सोज़-ए-दरूँ किया जो मिरा शम्अ ने बयाँ
जल कर ज़बान काट ली मेरे गवाह की
भरता है आज ख़ूब तरारे समंद-ए-नाज़
क़ुमची है उन के हाथ में ज़ुल्फ़-ए-सियाह की
देखा हुज़ूर को जो मुकद्दर तो मर गए
हम मिट गए जो आप ने मैली निगाह की
फ़ुर्क़त में याद आए जो लुत्फ़-ए-शब-ए-विसाल
इक आह भर के जानिब-ए-गर्दूं निगाह की
सुनसान कर दिया मिरे पहलू को ले के दिल
ज़ालिम ने लूट कर मिरी बस्ती तबाह की
वो मुझ से कह रहे हैं इशारों में देखना
सब ताड़ जाएँगे सर-ए-महफ़िल जो आह की
हम वो थे दिल ही दिल में किया ज़ब्त-ए-राज़-ए-इश्क़
सदमे उठा के मर गए मुँह से न आह की
अफ़्सोस है कि मैं तो फिरूँ दर-ब-दर ख़राब
तुम को ख़बर न हो मिरे हाल-ए-तबाह की
'जौहर' ख़ुदा के फ़ज़्ल से ऐसी ग़ज़ल कही
शोहरत मुशाइरे में हुई वाह-वाह की
ग़ज़ल
होते ख़ुदा के उस बुत-ए-काफ़िर की चाह की
लाला माधव राम जौहर