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होश-ओ-ख़िरद से दूर हूँ सूद-ओ-ज़ियाँ से दूर | शाही शायरी
hosh-o-KHirad se dur hun sud-o-ziyan se dur

ग़ज़ल

होश-ओ-ख़िरद से दूर हूँ सूद-ओ-ज़ियाँ से दूर

सबा अफ़ग़ानी

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होश-ओ-ख़िरद से दूर हूँ सूद-ओ-ज़ियाँ से दूर
दीवाना हूँ क़ुयूद-ए-रुसूम-ए-जहाँ से दूर

हद्द-ए-नज़र से दूर ज़मान-ओ-मकाँ से दूर
मंज़िल है मेरे इश्क़ की फ़हम-ओ-गुमाँ से दूर

रंगीनी-ए-जमाल से सहरा भी है चमन
बैठा हूँ गुल्सिताँ में मगर गुल्सिताँ से दूर

ये बे-ख़ुदी-ए-शौक़ का आलम तो देखिए
सज्दे तो कर रहा हूँ मगर आस्ताँ से दूर

दिल भी वही है मैं भी वही दर्द भी वही
लेकिन ये क्या कि लज़्ज़त-ए-सोज़-ए-निहाँ से दूर

शायद उसी का नाम है नाकामी-ए-मुराद
मंज़िल से हूँ क़रीब मगर कारवाँ से दूर

अफ़्साना-ए-हयात को समझो तो ऐ 'सबा'
हर हर्फ़ दास्ताँ है मगर दास्ताँ से दूर