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हो किस तरह न हम को हर दम हवा-ए-मतलब | शाही शायरी
ho kis tarah na hum ko har dam hawa-e-matlab

ग़ज़ल

हो किस तरह न हम को हर दम हवा-ए-मतलब

नज़ीर अकबराबादी

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हो किस तरह न हम को हर दम हवा-ए-मतलब
देखा जो ख़ूब हम ने दुनिया है जा-ए-मतलब

जो गुल-बदन कि आया आग़ोश में हमारे
कुछ और बू न निकली उस में सिवाए मतलब

उश्शाक़ की भी उल्फ़त ख़ाली नहीं ग़रज़ से
मरते हैं ये भी इस पर जिस से बराए मतलब

कोई किसी के ऊपर हम ने फ़िदा न देखा
मुँह पर फ़िदा हैं लेकिन दिल में फ़िदा-ए-मतलब

मतलब के आश्ना को हो किस से आश्नाई
कब आश्ना किसी का हो आश्ना-ए-मतलब

गर बज़्म-ए-रक़्स देखी तो वाँ भी गोश-ए-दिल में
कोई सदा न आई ग़ैर-अज़-सदा-ए-मतलब

ज़ेर-ए-फ़लक तो हम से जाती नहीं तमन्ना
हाँ फिर फ़लक पे जावें जब हम से जा-ए-मतलब

वो आबरू कि जिस पर करते हैं जाँ तसद्दुक़
उस को भी दे चुके हैं अक्सर बराए मतलब

जब हर्फ़-ए-आबरू तक पहुँचा 'नज़ीर' फिर तो
क्या कहिए ऐसी जागह जिज़्या कि हाए मतलब