EN اردو
हो के बेताब बदल लेते थे अक्सर करवट | शाही शायरी
ho ke betab badal lete the aksar karwaT

ग़ज़ल

हो के बेताब बदल लेते थे अक्सर करवट

रियाज़ ख़ैराबादी

;

हो के बेताब बदल लेते थे अक्सर करवट
अब ये है ज़ोफ़ कि क़ाबू से है बाहर करवट

हिज्र से बढ़ के शब-ए-वस्ल अज़िय्यत है मुझे
ग़ैर की याद दिलाती है तिरी हर करवट

रिंद बीमार रहा मोहतसिब-ए-शरअ' से तेज़
इस क़दर जल्द अरे फेंक के साग़र करवट

चुटकियाँ हिज्र में लेती है शिकन बिस्तर की
मेरे पहलू में चुभो देती है नश्तर करवट

शोख़ियाँ हैं कि बने हिज्र की शब वस्ल की रात
सो रहे फेर के मुँह आप बदल कर करवट

बैठना उन का नज़ाकत से दबा कर सीना
फिर ये कहना कि न लेना तह-ए-ख़ंजर करवट

तेरी ठोकर से न उल्टे कहीं वो तख़्ता-ए-क़ब्र
ले न ख़्वाबीदा कोई फ़ित्ना-ए-महशर करवट

हर तरफ़ काँटे बिछे हैं शिकन बिस्तर के
हम को मुश्किल है बदलना सर-ए-बिस्तर करवट

उन्हें मुँह फेर के सोने नहीं देता हूँ 'रियाज़'
वस्ल की रात मुझे क्यूँ न हो दूभर करवट