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हो जुदा ऐ चारा-गर है मुझ को आज़ार-ए-फ़िराक़ | शाही शायरी
ho juda ai chaara-gar hai mujhko aazar-e-firaq

ग़ज़ल

हो जुदा ऐ चारा-गर है मुझ को आज़ार-ए-फ़िराक़

ग़ुलाम मौला क़लक़

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हो जुदा ऐ चारा-गर है मुझ को आज़ार-ए-फ़िराक़
बे-विसाल अच्छा हुआ भी कोई बीमार-ए-फ़िराक़

शोख़ी-ए-पर्दा-नशीं की इश्वा-साज़ी देखना
दिल है बदमस्त-ए-विसाल और दीदा बेदार-ए-फ़िराक़

एक नाले में फिरेगा मेहर-ओ-मह को ढूँढता
ऐ फ़लक मत छेड़ मुझ को हूँ अज़ा-दार-ए-फ़िराक़

वस्ल थी मेरी सज़ा हिज्र इंतिक़ाम-ए-ग़ैर था
कब हुआ ख़ू-करदा-ए-हिज्राँ गिरफ़्तार-ए-फ़िराक़

कोई करता है ख़ता और कोई पाता है सज़ा
ग़ैर गुस्ताख़-ए-विसाल और मैं सज़ा-वार-ए-फ़िराक़

दम-ब-दम बिजली गिरे या नहर-ए-ख़ूँ जारी रहे
इल्तियाम इस सीने का क्या जो है अफ़गार-ए-फ़िराक़

आँख कब लगती है हीले से जो तुझ से लग गई
दास्तान-ए-वस्ल कब सुनता है बेदार-ए-फ़िराक़

दाम में सय्याद के क्यूँ कि न बुलबुल मर रहे
दामन-ए-हर-बर्ग-ए-गुल में था निहाँ ख़ार-ए-फ़िराक़

सौ बहार आए मगर जाता है कोई दाग़-ए-दिल
लाला-ओ-गुल का नहीं मुश्ताक़ ख़ूँ-बार-ए-फ़िराक़

अब 'क़लक़' ठोकर से तेरी जी चुका मरने के बा'द
आश्ना-ए-वस्ल कब हो नाज़-बरदार-ए-फ़िराक़