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हो चुका वाज़ का असर वाइज़ | शाही शायरी
ho chuka waz ka asar waiz

ग़ज़ल

हो चुका वाज़ का असर वाइज़

बहराम जी

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हो चुका वाज़ का असर वाइज़
अब तो रिंदों से दर-गुज़र वाइज़

सुब्ह-दम हम से तू न कर तकरार
है हमें पहले दर्द-ए-सर वाइज़

बज़्म-ए-रिंदाँ में हो अगर शामिल
फिर तुझे कुछ नहीं ख़तर वाइज़

वाज़ अपना ये भूल जाए तू
आवे गर यार-ए-सीम-बर वाइज़

है ये मुर्ग़-ए-सहर से भी फ़ाइक़
सुब्ह उठता है पेशतर वाइज़

मस्जिद-ओ-काबा में तू फिरता है
कू-ए-जानाँ से बे-ख़बर वाइज़

शोर-ओ-गुल बंद तो नहीं करता
है तू इंसाँ कि कोई ख़र वाइज़

ज़ाहिरी वाज़ से है क्या हासिल
अपने बातिन को साफ़ कर वाइज़

बंदा-ए-कू-ए-यार है 'बहराम'
तेरी मस्जिद से क्या ख़बर वाइज़