हो चुका वाज़ का असर वाइज़
अब तो रिंदों से दर-गुज़र वाइज़
सुब्ह-दम हम से तू न कर तकरार
है हमें पहले दर्द-ए-सर वाइज़
बज़्म-ए-रिंदाँ में हो अगर शामिल
फिर तुझे कुछ नहीं ख़तर वाइज़
वाज़ अपना ये भूल जाए तू
आवे गर यार-ए-सीम-बर वाइज़
है ये मुर्ग़-ए-सहर से भी फ़ाइक़
सुब्ह उठता है पेशतर वाइज़
मस्जिद-ओ-काबा में तू फिरता है
कू-ए-जानाँ से बे-ख़बर वाइज़
शोर-ओ-गुल बंद तो नहीं करता
है तू इंसाँ कि कोई ख़र वाइज़
ज़ाहिरी वाज़ से है क्या हासिल
अपने बातिन को साफ़ कर वाइज़
बंदा-ए-कू-ए-यार है 'बहराम'
तेरी मस्जिद से क्या ख़बर वाइज़
ग़ज़ल
हो चुका वाज़ का असर वाइज़
बहराम जी