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हिसार-ए-ज़ात से निकलूँ तो तुझ से बात करूँ | शाही शायरी
hisar-e-zat se niklun to tujhse baat karun

ग़ज़ल

हिसार-ए-ज़ात से निकलूँ तो तुझ से बात करूँ

राज कुमार क़ैस

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हिसार-ए-ज़ात से निकलूँ तो तुझ से बात करूँ
तिरी सिफ़ात को समझूँ तो तुझ से बात करूँ

तू कोहसार में वादी में दश्त-ओ-सहरा में
मैं तुझ को ढूँड निकालूँ तो तुझ से बात करूँ

तू शाख़ शाख़ पे बैठा है फूल की सूरत
मैं ख़ार ख़ार से उलझूँ तो तुझ से बात करूँ

तिरे इशारों से बढ़ कर तिरा बयाँ मुबहम
मैं तेरी बात को समझूँ तो तुझ से बात करूँ

तू इतना दूर कि पहचानना भी मुश्किल है
तुझे क़रीब से देखूँ तो तुझ से बात करूँ

झिजक झिजक के अगर हो तो बात बात नहीं
मैं तेरी आँख में झाँकूँ तो तुझ से बात करूँ

तू मेरा दोस्त है दुश्मन है या कि कुछ भी नहीं
मैं तेरे दिल को टटोलूँ तो तुझ से बात करूँ

ये मौज मौज तलातुम पे डूबना मेरा
मैं इत्तिफ़ाक़ से उभरूँ तो तुझ से बात करूँ

ज़बान-ए-'क़ैस' पे हर वक़्त तेरी बातें हैं
ज़बान-ए-क़ैस जो सीखूँ तो तुझ से बात करूँ