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हिसार-ए-ज़ात से बाहर न अपने घर में हैं | शाही शायरी
hisar-e-zat se bahar na apne ghar mein hain

ग़ज़ल

हिसार-ए-ज़ात से बाहर न अपने घर में हैं

रफ़ीक़ ख़याल

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हिसार-ए-ज़ात से बाहर न अपने घर में हैं
हम इस ज़मीं की तरह मुस्तक़िल सफ़र में हैं

भटक रहे हैं अँधेरे मुसाफ़िरों की तरह
उजाले महव-ए-सुकूँ दामन-ए-सहर में हैं

जिन्हें ख़बर ही नहीं शरह-ए-ज़िंदगी क्या है
वो मुजरिमों की तरह क़ैद अपने घर में हैं

तो ए'तिबार-ए-शब-ए-इंतिज़ार है जानाँ
तिरे फ़िराक़ के मौसम मिरी नज़र में हैं

जो बे-क़रार हैं उन को कहीं क़रार नहीं
नसीब वाले सितारों की रहगुज़र में हैं

'ख़याल' आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार है शायद
जो सुस्त-गाम थे वो लोग भी सफ़र में हैं