हिसार-ए-ज़ात से बाहर न अपने घर में हैं
हम इस ज़मीं की तरह मुस्तक़िल सफ़र में हैं
भटक रहे हैं अँधेरे मुसाफ़िरों की तरह
उजाले महव-ए-सुकूँ दामन-ए-सहर में हैं
जिन्हें ख़बर ही नहीं शरह-ए-ज़िंदगी क्या है
वो मुजरिमों की तरह क़ैद अपने घर में हैं
तो ए'तिबार-ए-शब-ए-इंतिज़ार है जानाँ
तिरे फ़िराक़ के मौसम मिरी नज़र में हैं
जो बे-क़रार हैं उन को कहीं क़रार नहीं
नसीब वाले सितारों की रहगुज़र में हैं
'ख़याल' आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार है शायद
जो सुस्त-गाम थे वो लोग भी सफ़र में हैं

ग़ज़ल
हिसार-ए-ज़ात से बाहर न अपने घर में हैं
रफ़ीक़ ख़याल