हिरासाँ हूँ सियाही में कमी होती नहीं है
चराग़ाँ कर रहा हूँ रौशनी होती नहीं है
बहुत चाहा कि आँखें बंद कर के मैं भी जी लूँ
मगर मुझ से बसर यूँ ज़िंदगी होती नहीं है
लहू का एक इक क़तरा पिलाता जा रहा हूँ
अगरचे ख़ाक में पैदा नमी होती नहीं है
दरीचों को खुला रखता हूँ मैं हर-वक़्त लेकिन
हवा में पहले जैसी ताज़गी होती नहीं है
मैं रिश्वत के मसाइल पर नमाज़ें पढ़ न पाया
बदी के साथ मुझ से बंदगी होती नहीं है
मैं अपने अहद की तस्वीर हर-पल खींचता हूँ
ग़लत है सोचना ये शाइ'री होती नहीं है
बुरा है दुश्मनी से आश्ना होना भी 'आलम'
किसी से अब हमारी दोस्ती होती नहीं है
ग़ज़ल
हिरासाँ हूँ सियाही में कमी होती नहीं है
आलम ख़ुर्शीद