EN اردو
हिलती है ज़ुल्फ़ जुम्बिश-ए-गर्दन के साथ साथ | शाही शायरी
hilti hai zulf jumbish-e-gardan ke sath sath

ग़ज़ल

हिलती है ज़ुल्फ़ जुम्बिश-ए-गर्दन के साथ साथ

निज़ाम रामपुरी

;

हिलती है ज़ुल्फ़ जुम्बिश-ए-गर्दन के साथ साथ
नागिन भी है लगी हुई रहज़न के साथ साथ

किस की कुदूरतों से ये मिट्टी ख़राब है
किस का ग़ुबार है तिरे दामन के साथ साथ

उट्ठा था मुँह छुपाए हुए मैं ही सुब्ह को
जाता था मैं ही रात को दुश्मन के साथ साथ

कूचे में उस सनम के ख़ुदाई का लुत्फ़ है
नाहक़ फिरा मैं शैख़ ओ बरहमन के साथ साथ

दिल की तपिश ने ख़ाक उड़ाई ये ब'अद-ए-मर्ग
लाशा फिरा किया मिरा मदफ़न के साथ साथ

अल्लाह अपने रश्क का दर्जा भी अब नहीं
किस किस जगह गया बुत-ए-पुर-फ़न के साथ साथ

झोंका क़फ़स में आया जो बाद-ए-बहार का
पहलू से दिल निकल चला सन-सन के साथ साथ

अश्कों के साथ साथ तो मौजें ग़मों की हैं
आँखों के शोले हैं मिरे शेवन के साथ साथ

जिस राह से गुज़रते हैं वो, मुझ से सैकड़ों
हो लेते हैं जुनूँ-ज़दा बन बन के साथ साथ

ज़ंजीर मेरे पाँव के पीछे पड़ी है यूँ
फिरता है रिश्ता जिस तरह सोज़न के साथ साथ

कब तक किसी को खोलें किसी को करें वो बंद
फिरती है याँ निगाह तो रौज़न के साथ साथ

यूँ साथ रूह के है तन-ए-ज़ार अब 'निज़ाम'
फिरता है जैसे साया मिरा तन के साथ साथ