हिज्र की रात याद आती है
फिर वही बात याद आती है
तुम ने छेड़ा तो कुछ खुले हम भी
बात पर बात याद आती है
तुम थे और हम थे चाँद निकला था
हाए वो रात याद आती है
सुब्ह के वक़्त ज़र्रे ज़र्रे की
वो मुनाजात याद आती है
हाए क्या चीज़ थी जवानी भी
अब तो दिन-रात याद आती है
मय से तौबा तो की 'अज़ीज़' मगर
अक्सर औक़ात याद आती है
ग़ज़ल
हिज्र की रात याद आती है
अज़ीज़ लखनवी