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हिज्र का ग़म भी नहीं वस्ल की पर्वा भी नहीं | शाही शायरी
hijr ka gham bhi nahin wasl ki parwa bhi nahin

ग़ज़ल

हिज्र का ग़म भी नहीं वस्ल की पर्वा भी नहीं

मानी जायसी

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हिज्र का ग़म भी नहीं वस्ल की पर्वा भी नहीं
दिल भी पहलू में नहीं दिल की तमन्ना भी नहीं

नहीं दरकार नहीं मुझ को ग़म-ए-चारा-ए-ग़म
हाँ मैं दीवाना हूँ बे-शक मगर इतना भी नहीं

तुम न शरमाओ न घबराओ मैं कहता भी हूँ कुछ
ज़िक्र-ए-वा'दा भी नहीं ख़्वाहिश-ए-ईफ़ा भी नहीं

जोशिश-ए-गिर्या इक ए'जाज़ है वर्ना दिल-ए-ज़ार
आख़िर इक बूँद है बादल नहीं दरिया भी नहीं

बे-ख़ुदी हश्र में क्या याद दिलाऊँगा उसे
ख़ुद मुझे याद अब उस शोख़ का वादा भी नहीं

वक़्त पुर्सिश है अभी फ़ुर्सत-ए-एहसाँ है अभी
आइए मैं अभी ज़िंदा भी हूँ अच्छा भी नहीं

अब कहाँ लज़्ज़त-ए-एहसास-ए-तरक़्क़ी 'मानी'
यास में जज़र-ओ-मद-ए-दर्द-ए-तमन्ना भी नहीं