हिज्र है अब था यहीं में ज़ार हम पहलू-ए-दोस्त
मेरे बिस्तर पर मुझे तड़पा रही है बू-ए-दोस्त
ख़त्म ज़ीनत हो गई मश्शाता ने ले लीं बलाएँ
गेसू-ए-पुर-ख़म ने चूमे शाना-ओ-बाज़ू-ए-दोस्त
इम्तिहाँ क़ुव्वत का है तलवार उठाई जाती है
अब तो इस क़ाबिल हुए हैं पंजा-ओ-बाज़ू-ए-दोस्त
ज़ख़्म खाता बढ़ के मैं और वो लगाता बढ़ के तेग़
दिल मिरा बढ़ता तो बढ़ती क़ुव्वत-ए-बाज़ू-ए-दोस्त
घट गया याँ ख़ून और वाँ फ़स्द का सामाँ हुआ
आ गया ग़श मुझ को जब बाँधा गया बाज़ू-ए-दोस्त
जान आधी रह गई देखी जो ग़ुस्से की नज़र
दिल पे इक बिजली गिरी जब हिल गए अबरू-ए-दोस्त
मुझ को जिन से इश्क़ है उन को है मुझ से दुश्मनी
याँ वो आते थे कि उलझे पाँव गेसू-ए-दोस्त
का'बा जिस को लोग कहते हैं मकाँ है यार का
अर्श-ए-आज़म नाम रखते हैं ज़मीन-ए-कू-ए-दोस्त
मेरे सीने में हुई क्यूँ ख़ाना-ए-दिल की बिना
ये मकाँ बनने के क़ाबिल थी ज़मीन-ए-कू-ए-दोस्त
ज़ख़्मी-ए-उल्फ़त हूँ मैं सेहत नहीं होगी मुझे
भर रही है दिल के ज़ख़्मों में हवाए कू-ए-दोस्त
बख़्शती है रूह को हर मर्तबा इक ताज़गी
मुझ को मरने ही नहीं देती हवा-ए-कू-ए-दोस्त
तालिब-ए-दीदार हैं है साफ़ आँखों से अयाँ
गो कि मुँह से कुछ नहीं कहते गदा-ए-कू-ए-दोस्त
दुश्मन ईज़ा देते हैं हर मर्तबा मुझ को 'रशीद'
ग़ुस्सा आता है मगर मैं देखता हूँ सू-ए-दोस्त
ग़ज़ल
हिज्र है अब था यहीं में ज़ार हम पहलू-ए-दोस्त
रशीद लखनवी