हिज्र-ए-जानाँ में जी से जाना है
बस यही मौत का बहाना है
क्यूँ न बरसाएँ अश्क दीदा-ए-तर
आतिश-ए-इश्क़ का बुझाना है
हो अदू जिस पे कीजिए एहसान
कुछ अजब तरह का ज़माना है
याद दिलवा के दास्तान-ए-विसाल
आशिक़-ए-ज़ार को रुलाना है
रख दिला रोज़-ओ-शब उमीद-ए-विसाल
रंज-ए-फ़ुर्क़त अगर भुलाना है
जान जाती है जिस जगह सब की
उसी कूचे में अपना जाना है
कोई दम में अदम को हूँ राही
आ अगर तुझ को अब भी आना है
ख़ाक-सारी न छोड़ना 'रा'ना'
एक दिन ख़ाक ही में जाना है
ग़ज़ल
हिज्र-ए-जानाँ में जी से जाना है
मर्दान अली खां राना