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हिज्र-ए-जानाँ में जी से जाना है | शाही शायरी
hijr-e-jaanan mein ji se jaana hai

ग़ज़ल

हिज्र-ए-जानाँ में जी से जाना है

मर्दान अली खां राना

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हिज्र-ए-जानाँ में जी से जाना है
बस यही मौत का बहाना है

क्यूँ न बरसाएँ अश्क दीदा-ए-तर
आतिश-ए-इश्क़ का बुझाना है

हो अदू जिस पे कीजिए एहसान
कुछ अजब तरह का ज़माना है

याद दिलवा के दास्तान-ए-विसाल
आशिक़-ए-ज़ार को रुलाना है

रख दिला रोज़-ओ-शब उमीद-ए-विसाल
रंज-ए-फ़ुर्क़त अगर भुलाना है

जान जाती है जिस जगह सब की
उसी कूचे में अपना जाना है

कोई दम में अदम को हूँ राही
आ अगर तुझ को अब भी आना है

ख़ाक-सारी न छोड़ना 'रा'ना'
एक दिन ख़ाक ही में जाना है