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हिजाब उट्ठे हैं लेकिन वो रू-ब-रू तो नहीं | शाही शायरी
hijab uTThe hain lekin wo ru-ba-ru to nahin

ग़ज़ल

हिजाब उट्ठे हैं लेकिन वो रू-ब-रू तो नहीं

उम्मीद फ़ाज़ली

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हिजाब उट्ठे हैं लेकिन वो रू-ब-रू तो नहीं
शरीक-ए-इश्क़ कहीं कोई आरज़ू तो नहीं

ये ख़ुद-फ़रेबी-ए-एहसास-ए-आरज़ू तो नहीं
तिरी तलाश कहीं अपनी जुस्तुजू तो नहीं

सुकूत वो भी मुसलसल सुकूत क्या मअनी
कहीं यही तिरा अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू तो नहीं

उन्हें भी कर दिया बेताब-ए-आरज़ू किस ने
मिरी निगाह-ए-मोहब्बत कहीं ये तू तो नहीं

कहाँ ये इश्क़ का आलम कहाँ वो हुस्न-ए-तमाम
ये सोचता हूँ कि मैं अपने रू-ब-रू तो नहीं

निगाह-ए-शौक़ से ग़ाफ़िल समझ न जल्वों को
शराब कुछ भी हो बे-गाना-ए-सुबू तो नहीं

ख़ुशी से तर्क-ए-मोहब्बत का अहद ले ऐ दोस्त
मगर ये देख तिरा दिल लहू लहू तो नहीं

न गर्द-ए-राह है रुख़ पर न आँख में आँसू
ये जुस्तुजू भी सही उस की जुस्तुजू तो नहीं

चमन में रखते हैं काँटे भी इक मक़ाम ऐ दोस्त
फ़क़त गुलों से ही गुलशन की आबरू तो नहीं